Sunday, August 11, 2013

राख़ से लिपटी हुई, सर्द सी आहें

राख़ से लिपटी हुई, सर्द सी आहें
जाने कौन से अरमान, सेकना चाहें

खामोशीयों से ऐसी आवाजें उठ रही है
जैसे की हसतें हसतें कोई ले रहा कराहें

बरसों से ताकती है एक राह कोठरी से
चौखट बनी हुई है तरसी हुई निगाहें

अब के बरस न आया, उम्मीद छोड़ देंगे
ग़म लगा के सीने, भर लेंगे हम ये बाहें

किस्मत की बेवफाई रुकी नहीं कहीं भी
भटके हुए मुसाफिर को मिलतें रहे चौराहें

उसके ही हौसलों में कमजोरी थी जो भटका
मंज़िल तलक तो वरना पहुंचा ही देती राहें


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